मुस्काना
ना जाने क्यों, बेवज़ह लोग मुस्काना छोड़ देते हैं। हज़ारों लाखों की संख्या में प्रकृति ने हम सभी को गिरने, हारने, ठोकर खाने इत्यादि के पश्चात् मुस्कुराने के उदाहरण दिए हैं, कि कैसे इतनी चोट के बावजूद ये सारी चीज़ें यूँ मधुर ध्वनि में मुस्कुराने का संदेश दे जाती हैं, फिर हम मानव, जिनमें सोचने-समझने, चिंतन करने, बोध इत्यादि की अद्वितीय तथा अद्भुत कला है, जो किसी अन्य प्रजाति में नहीं, इसके बावज़ूद हम हल्की फुल्की बातों तथा परेशानियों के कारण मुस्काना छोड़ देते हैं।
यह कविता मैंने इसी बात को ध्यान में रखते हुए लिखी, क्योंकि मुस्कान आपके चेहरे की रौनक हीं नहीं बढ़ाती, बल्कि ये आपको एक आत्मबल प्रदान करती है, जो आपको किसी भी परेशानी से जूझने की एक अद्भुत शक्ति प्रदान करती है। यह कविता पढ़े, तथा अपनी अधरों पर हमेशा मुस्कान बनाएं रखें।
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मुस्काना
लहराती जब पवन चले, यूँ इधर-उधर पत्ते बिखरे;
झंझावात की दौर चली, नभ से जल की बूंद गिरे;
गिरने पर भी छम-छम करती, उनसे मैंने है यह जाना;
कभी गिरो गर पथिक राह में, तुम भी ऐसे मुस्काना।
भयप्रद अग्नि भय फैलाकर, भू पर हीं जलती रही;
काली धुंध नीरवतापूर्वक, व्योम चीर-कर उड़ पड़ी;
बनना तुम भी धुंध स्याह, और नभ के ऊपर उड़ जाना;
कभी व्यग्र हो गए तुम तो, चिंता त्याग फिर मुस्काना।
ठोकर खाने से पहले, यूँ रहती थी बेजान पड़ी;
ठोकर खाकर शिल्प को देखो, उभय-निष्ठ से मूर्त बनी;
उठ खड़े होना गिरकर फिर से,जब भी तुम ठोकर खाना;
बेमतलब विक्षुब्ध न होना, सदैव यूँ हीं मुस्काना।
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धन्यवाद दोस्तों।
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