आकुल मन तू क्यों घबराया
यूँ तो मैं सभी को अपने अनुभवों के आधार पर परामर्श दिया करता था, किन्तु एक समय की घटना है, कि मुझे मेरे परामर्श के कारण ही कई विपत्तियों का सामना करना पड़ा। उस वक्त मेरी वेदना उस पराकाष्ठा को पार कर चुकी थी, कि मैं कुछ करने की स्थिति में नहीं था। मैंने अपनी वेदना को शब्दों में पिरोने की सोची, जिसका परिणाम यह कविता है, जो मेरे ह्रदय के बहुत समीप है। कविता पढ़े, तथा उस अनुभूति को महसूस करने की कोशिश करें, अवश्य हीं आप भी उस वेदना को महसूस कर सकेंगे।
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आकुल मन तू क्यों घबराया?
यह विस्मय की घड़ी गज़ब है,
बस कहने को अपने सब हैं;
फूट पड़े स्वर निस्वार्थ भाव से,
ठोकर खाने पर पछताया,
आकुल मन तू क्यों घबराया?
पहले स्वयं की निधि बढ़ाना,
तब गैरों पर रहम दिखाना;
सोचो, छाया दरख़्त की,
कभी उसी के काम न आया,
आकुल मन तू क्यों घबराया?
मन का तार मन हीं में तोड़ो,
जिह्वा-शूल की दिशा मरोड़ो,
नव-कल्प की भेद को समझो,
व्यथा अपनी है, प्रेम पराया;
आकुल मन तू क्यों घबराया?
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धन्यवाद दोस्तों।
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