कदम बढाओ, बढ़ चलो।
कभी कभी इंसान को न जाने क्या हो जाता है, कि वह अपने पथ से भ्रमित हो, या तो वापस लौटने लगता है, या अपना पथ ही बदल लेता है, जिसका प्रतिफल यही आता है..कि वह पराजित हो जाता है।
किन्तु, यदि वह उसी पथ पर निरंतर चलता रहे, बिना किसी संकोच के, तो यह पराजय उसका अंत नहीं। इसी से, डरो नहीं अपनी हार से। जितनी बार हारोगे, तुम हार के एक नए कारण को जान जाओगे, जो अगली बार में तुम्हे मज़बूती प्रदान करेगी।
यह कविता, मेरे ह्रदय के बहुत करीब है, क्योंकि यह हमेशा से मुझे पुनर्बलन देता आया है। पेश है आपके सामने यह कविता, जिसका शीर्षक है "बढ़ चलो"। उम्मीद है, आप सभी को भी यह कविता पसंद आएगी।
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तुम चमन की ओज हो, प्रभात सा निखर चलो..!
चले चलो उधर सतत, चाहे तुम जिधर चलो..!
काट डालो बेड़ियों को, अड़चनें बढ़ाए जो,
रुको ना पंथ शूलों से, कदम बढ़ाओ बढ़ चलो..!
तुम्हारा लक्ष्य ये नहीं, जहां पे तुम रुके खड़े,
ना काल ना ये अंत है, जो तुम अडिग डरे खड़े..!
संकल्प लो, प्रबल बनो, जिधर चलो, संवर चलो..!
डरो ना अंत काल से, कदम बढ़ाओ बढ़ चलो..!
क्रोध अपनी थाम कर, बनाओ प्रचंड ज्वार तुम,
चलो यूं कि फेंक डालो, मुश्किलें उखाड़ तुम,
अपनी प्रचंड वेग में, क्रोध अपनी भर चलो..!
चलो अनंत काल तक, कदम बढ़ाओ बढ़ चलो..!
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धन्यवाद दोस्तों।
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